हो पूरब की या पश्चिमी रौशनी

हो पूरब की या पश्चिमी रौशनी।
अँधेरों से लड़ती रही रौशनी॥

क़तारों से क़तरे उलझते रहे।
ज़मानों को मिलती रही रौशनी॥

इबादत की किश्तें चुकाते रहो।
किराये पे है रूह की रौशनी॥

किसी नूर की छूट है हर चमक।
ज़मीं पर भला कब उगी रौशनी॥

अँधेरों पे दुनिया का दिल आ गया।
फ़ना हो गई बावली रौशनी॥

सितारों पे जा कर करोगे भी क्या।
जो हासिल नहीं पास की रौशनी॥

उजालों में भी सूझता कुछ नहीं।
वो रुख़सत हुआ, छिन गई रौशनी॥

गमकती-चमकती रही राह भर।
परी थी वो या संदली रौशनी॥

वो घर, घर नहीं; वो तो है कहकशाँ।
जहाँ तन धरे लाड़ली रौशनी॥

ये चर्चा बहुत चाँद-तारों में है।
मुनव्वर को किस से मिली रौशनी॥

बहुत जा रहे हो वहाँ आजकल।
तो क्या तुम पे भी मर मिटी रौशनी॥

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