कोई बताये कि हम क्यूँ पड़े रहें घर में


कोई बताये कि हम क्यूँ पड़े रहें घर में।
हमें भी तैरना आता है अब समन्दर में॥

ये तेरा आना हमें छूना और निकल जाना।
कि जैसे करने हों बस दस्तख़त रजिस्टर में॥

हमें तो हर घड़ी तेरा ही इन्तज़ार है बस।
किसी भी डेट पे गोला बना केलेण्डर में॥

ये सोच कर ही कभी हम भी आये थे मुम्बै।
कभी तो हम भी दिखेंगे बड़े से पोस्टर में॥

वो एक दौर था जब डाकिये फ़रिश्ते थे।
ख़ुदा सा दिखता था हजरात पोस्ट-मास्टर में॥

कभी हमारी तरह सोच कर तो देखो ‘नवीन’।
तुम्हें भी दिखने लगेगा - ‘शिवम’ - इरेज़र में।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें