आज का जितना भी हर्जाना है

आज का जितना भी हर्जाना है।
कल के कल सारा ही भर जाना है॥

ये जो कलियाँ हैं न! बस खिल जाएँ।
फिर तो ख़ुशबूएँ बिखर जाना है॥

और क्या आब-जनों का मामूल।
डूब जाना कि उबर जाना है॥

ये उदासी तो नहीं हो सकती।
ये तो सरसर का ठहर जाना है॥

हम को गहराई मयस्सर न हुई।
हम ने साहिल पे बिखर जाना है॥

अव्वल-अव्वल हैं उसी के चरचे।
आख़िर-आख़िर जो अखर जाना है॥

क्यों न पहिचानेगी दुनिया हम को।
सब ने थोड़े ही मुकर जाना है॥

नैन लड़ते ही ये तय था एक रोज़।
दर्द पलकों पे पसर जाना है॥

ढल गयी रात वो आये ही नहीं।
अब तो नश्शा भी उतर जाना है॥

जिस पे जो गुजरे मुक़द्दर उस का।
मरने वालों ने तो मर जाना है॥

परसूँ गिद्धेश 1 ने भी सोचा था।
“आज हर हद से गुजर जाना है”॥

ब्रज-गजल ऐसे न बिदराओ ‘नवीन’।
कल को अज़दाद 2 के घर जाना है॥

1 गीधराज सम्पाती जिसने उड़ कर सूर्य तक पहुँचना चाहा था 2 पुरखों, पूर्वजों

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