फ़ानी जहाँ में होनी है अपनी बसर कहाँ


फ़ानी जहाँ में होनी है अपनी बसर कहाँ।
पर इस से बच के जाएँ तो जाएँ किधर, कहाँ॥

हमसे कहो हो प्यार किया रस्म की तरह।
उलफ़त में आप से भी हुई ना-नुकर कहाँ॥

हमने भी कैसी-कैसी नज़ीरों को गढ़ दिया।
शबनम कहाँ है और तेरी चश्मेतर कहाँ॥

ख़्वाबों ने हमको छोड़ा तो यादों ने धर लिया।
तुम से मिले तो पायी फिर अपनी ख़बर कहाँ॥

सच तो यही है जो कि उजालों को खा गयी।
उस रात की हुयी है अभी तक सहर कहाँ॥

उड़-उड़ के जिस ने शहर को बर्बाद कर दिया।
कोई तो बोलो अब है वो उड़ती ख़बर कहाँ॥

बादल बरस रहे हैं मगर नम नहीं ज़मीन।
मौसम तेरे मिजाज़ में अब वो असर कहाँ

थे दस्तरस में जिन की ज़माने, ज़मानों तक।
गुम हो गये हैं यार वे मन के नगर कहाँ॥

अश्क़ों को पौंछ और ज़रा देख ध्यान से।
ले जा रही है तुझको तेरी चश्मे-तर कहाँ॥

फ़ानी - नश्वर / नाशवान, बसर - गुजर-बसर / निर्वाह, नज़ीर - उदाहरण / प्रतीक, चश्मेतर - भीगी आँख [आँसू के संदर्भ में], उल्फ़त – प्रेम, सहर – सुबह,

हजरत अल्ताफ़ हुसैन साहब हाली की ज़मीन “है जुस्तजू कि ख़ूब से है ख़ूबतर कहाँ” पर एक कोशिश


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