सब की सुनता हूँ बस अपनी ही सदा काटूँ हूँ।
ख़ुद को इनसान समझने की सज़ा
काटूँ हूँ ॥
ये जो हरकत है इसे कौन
तरक़्क़ी बोले ।
इस की ख़ुशियों के लिये उस का
गला काटूँ हूँ ॥
भूल बैठा हूँ मैं कुदरत के
तवाजुन के उसूल ।
पेड़ की डाल की मानिन्द शिला
काटूँ हूँ ॥
जब भी धरती की धरोहर पे
चलाऊँ कैंची ।
ऐसा लगता है कि शंकर की जटा
काटूँ हूँ ॥
बाँटता, बेचता रहता हूँ ज़मीं के टुकड़े ।
मेरी औक़ात नहीं फिर भी ख़ला
काटूँ हूँ ॥
रात दिन करता ही रहता हूँ
हवा को ज़ख़्मी ।
अपनी परवाज़ की आरी से हवा
काटूँ हूँ ॥
सदा = आवाज़, तवाजुन = सन्तुलन, परवाज़ = उड़ान
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