ख़ुद को बेहतर बना रहा हूँ मैं


ख़ुद को बेहतर बना रहा हूँ मैं । 
जगमगाहट का सिलसिला हूँ मैं ।। 

भाप की शक्ल आब से उठ कर । 
रक़्स करता हुआ ख़ला हूँ मैं ।।

मेरी गिरहें जिरह की हैं मुहताज । 
जल्दबाज़ी का फ़ैसला हूँ मैं ।। 

वक़्त क़ाबू में रख हवाओं को । 
तेरी दहलीज़ का दिया हूँ मैं ।। 

ख़ाब हो या सुकून के दुश्मन । 
तुम से अब तंग आ गया हूँ मैं ।। 

बन के परबत मुझी पे बैठोगी । 
राईयो तुम को जानता हूँ मैं ।। 

आसमानों में ढूँढ मत मुझ को । 
आसमानों से गिर चुका हूँ मैं ।। 

 मैं हूँ रघुपति सहाय का वारिस । 
अपना।अंज़ाम जानता हूँ मैं ।। 

आब - पानी; रक़्स - नृत्य; ख़ला - निर्जन, संसार, ब्रह्माण्ड; पाँच असर - पंचतत्व 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें