हम
वही नादाँ हैं जो ख़्वाबों को धरकर ताक पर।
जागते
ही रोज़ रख देता है ख़ुद को चाक पर॥
दिल वो दरिया है जिसे मौसम भी करता है तबाह।
क्यों धरें इल्ज़ाम केवल हरकते-नापाक पर॥
क्यों धरें इल्ज़ाम केवल हरकते-नापाक पर॥
हम
तो उस के ज़ह्न 1 की उरयानियों 2 पर मर मिटे।
दाद
अगरचे 3 दे रहे हैं जिस्म और पौशाक पर॥
हम
बख़ूबी जानते हैं बस हमारे जाते ही।
कैसे-कैसे
गुल खिलेंगे इस बदन की ख़ाक पर॥
और
कब तक आप ख़ुद से दूर रक्खेंगे हमें।
अब
हमारे घर बनेंगे आप के अफ़लाक 4 पर॥
बात
और ब्यौहार ही से जान सकते हैं इसे।
इल्म
की इमला लिखी जाती नहीं पौशाक पर॥
उन
के ही रू 5, आब 6
की ख़ातिर तरसते हैं 'नवीन'।
ग़ौर
फ़रमाते नहीं जो ज़ह्न की ख़ूराक पर॥
1 मस्तिष्क,
सोच 2 नग्नता,
स्पष्टता,
खुलापन 3 हालाँकि 4 आसमानों 5 मुख,
चेहरे 6 कान्ति,
चमक
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें