कभी जंगलों को जला कर चले


कभी जंगलों को जला कर चले।
कभी आशियाने गिरा कर चले।
हवा से कहो है जो इतना गुमाँ।
तो बारेमुहब्बत उठा कर चले॥

निभाता है इस से तो छूटे है वो।
मनाता है इस को तो रूठे है वो।
बशर की भी अपनी हदें हैं जनाब।
कहाँ तक सभी से निभा कर चले॥

ये जीवन है काँटों भरा इक सफ़र।
हरिक मोड़ पर हैं अगर या मगर।
वही क़ामयाबी का लेता है लुत्फ़।
जो दामन को अपने बचा कर चले॥

अजल से यही एक दस्तूर है।
जो कमज़ोर है वो ही मज़बूर है।
उसे क्या डरायेगी दुनिया नवीन
जो आँखें क़ज़ा से मिला कर चले॥

बारेमुहब्बत - मुहब्बत का बोझ, बशर-मनुष्य, अजल - आदिकाल, क़ज़ा - मौत


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