वहशत
है ज़माने की तो है तेरी लगन भी।
इस
जिस्म के अन्दर है बयाबाँ भी चमन भी॥
फिर
मींच के पलकों को ज़रा ख़ुद में उतरना।
गर
तुझको सुकूँ दे न सकें 'नात-भजन' भी॥
ऐसा
नहीं बस धरती पे ही रंज़ोअलम हैं।
हर
सुब्ह सिसकता है ज़रा देर गगन भी॥
दिल
तोड़ने वाले कभी ख़ुश रह नहीं सकते।
ता-उम्र
तड़पते रहे बृजराज किशन भी॥
ताला
सा लगा देती हैं कुछ बातें ज़ुबाँ पर।
समझा
न सके साहिबो सीता को लखन भी॥
वहशत
- डर / पागलपन, बयाबान
- जंगल, सुनसान
जगह, नात - इस्लाम में ईश्वरीय आराधना यानि भजन के लिये प्रयुक्त, रंज़ोअलम - दुःख-दर्द
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