हम समझ पाये नहीं पहला हिसाब


हम समझ पाये नहीं पहला हिसाब।
वक़्त ले कर आ गया अगली किताब॥

उन दिनों कुछ अनमना सा था रहीम।
मूड कुछ-कुछ राम का भी था ख़राब॥

लाल जू कहिये तो अब क्या हाल हैं।
और कैसा है हमारा इनक़लाब॥

दोस्त ये दुनिया सँवरती क्यों नहीं।
अब तो घर-घर घुस चुका है इनक़लाब॥

सिर्फ़ सहराओं 1 को ही क्या कोसना।
हायवे पर भी झमकते हैं सराब 2॥

कह रहे हैं कुछ मुसाफ़िर प्लेन के।
कर दिया बरसात ने मौसम ख़राब॥

अब तो बच्चे-बच्चे को मालूम है।
किस तरह भारत में घुसते हैं कसाब॥

हाँ इसी धरती पे जन्नत थी ‘नवीन’।
सोचिये किस ने किया खाना-ख़राब॥


1 मरुस्थलों 2 मृगतृष्णा


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