यूँ रब्त कोई उस का मेरे घर से नहीं था


यूँ रब्त कोई उस का मेरे घर से नहीं था।

पर, पल भी हटा दर्द मेरे दर से नहीं था॥

 

आवारा कहा जायेगा दुनिया में हरिक सम्त।

सँभला जो सफ़ीना किसी लंगर से नहीं था॥

 

महफ़ूज रहा है ये मुक़द्दर से ही अब तक।

पाला ही पड़ा शीशे का पत्थर से नहीं था॥

 

ख़ुशियाँ थीं हरिक सम्त मगर ग़म ही दिखे बस।

“बेदार कोई अपने बराबर से नहीं था”॥ *

 

क्या अपनी है औक़ात कि इस दुनिया को शिकवा।

“जंगल से नहीं था कि समन्दर से नहीं था”॥ *

  

रब्त – सम्बन्धसम्त – तरफ़ / ओरसफ़ीना – नावमहफ़ूज – सुरक्षितबेदार – परिचित के सन्दर्भ मेंशिकवा – शिकायत; * ये मिसरे मुहतरम बानी मनचन्दा साहब की ग़ज़ल से लिये गये हैं

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें