किस–किस
को जा कर बतलाऊँ किस की ढ़ूँढ़ रहा हूँ राह।
सीधा
उस तक जा सकता हूँ – फिर भी ढ़ूँढ़ रहा हूँ राह।।
नींद
में आ कर पूछेगा तब भी मैं ये ही बोलूँगा।
दिल
में रहने वाले! तेरे दिल की – ढ़ूँढ़ रहा हूँ राह।।
समझ
रहा हूँ ख़ुद को सूरज, हावी
हूँ अँथियारों पर।
लेकिन
दिल की ख़ातिर तारों वाली ढ़ूँढ़ रहा हूँ राह।।
मैं
ने सोचा सब से पुरानी शय को तो होगा मालूम।
चलते-चलते
लमहा बोला – मैं भी ढ़ूँढ़ रहा हूँ राह।।
पथरीली
राहों ने मेरे तलुवों को जो सिखलाया।
उस
के मुताबिक ही अब सीली-सीली ढ़ूँढ़ रहा हूँ राह॥
सच
कहना गर ज़ुर्म न हो तो आज मुझे कह लेने दो।
आप
तो हासिल हैं ही मेरे – बाकी – ढ़ूँढ़ रहा हूँ राह॥
घर
वालों ने सोच समझ कर मेरा नाम रखा था ‘नवीन’।
और
एक मैं हूँ पुराने ढर्रे वाली ढ़ूँढ़ रहा हूँ राह॥
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