जिस को अपने बस में करना था उस से ही लड़ बैठा

जिस को अपने बस में करना था उस से ही लड़ बैठा।
सीधा मन्तर पढते-पढते उलटा मन्तर पढ बैठा।

परसों मैं बाज़ार गया था, दरपन लेने की ख़ातिर।
क्या बोलूँ - दूकान प ही मैं - शर्म के मारे गड़ बैठा॥

वह ऐसा तसवीर-नवाज़ कि मैं जँचता ही नहीं उस को।
और एक मैं - हर फ़्रेम के अन्दर - चित्र उसी का जड़ बैठा॥

ज्ञान लुटाने निकला था और झोली में भर लाया प्यार।
मैं ऐसा रंगरेज़ हूँ जिस पर रंग चुनर का चढ बैठा॥

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