ख़ुद अपनी ख़्वाहिशों के वासते जो अड़ नहीं सकता।
ज़माने से लड़ेगा क्या, जो
खुद से लड़ नहीं सकता।।
तरक़्क़ी चाहिए तो बन्दिशें भी तोड़नी होंगी।
अगर लंगर पड़ा हो तो सफ़ीना बढ़ नहीं सकता।।
शराफ़त की हिमायत शायरी में ठीक लगती है।
सियासत में भले लोगों का झण्डा गड़ नहीं सकता।।
अब अच्छा या बुरा, जैसा भी है ये मूड है
मेरा।
अगर मैं छोड़ दूँ इस को तो ग़ज़लें पढ़ नहीं सकता।।
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