बागवाँ, लगता नहीं कि थक गया है साहिबान।
हमको अन्देशा खिज़ां का हो रहा है साहिबान।।
पेड़-पौधे, फूल-पत्ते, गुंचा-ओ-बुलबुल उदास।
ग़मज़दा हैं सब - चमन सबका लुटा है साहिबान।।
फिर न दीवारें उठें, फिर
से न टूटे दिल कोई।
कुछ बरस पहले ही अपना घर बँटा है साहिबान।।
खुल गये पन्ने तो सारा भेद ही खुल जायेगा।
अब समझ आया कि सेंसर क्यों लगा है साहिबान।।
ग़म ग़लत करने की ख़ातिर कुछ न कुछ पीते हैं सब।
हमने भी साहित्य का अमृत पिया है साहिबान।।
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