राहों
की धूल फाँकी है, बरसात भी सही।
हम
इस के बावुजूद हैं नक़्शानवीस ही॥
टपके
नहीं फ़लक से ग़रीबों के अस्पताल।
अक्सर
इन्हें बनाता है कोई रईस ही॥
पैदल
चलें, उड़ें
कि तसव्वुर के डग भरें।
आख़िर
तो सब के हाथ में लगनी है टीस ही॥
क़दमों
में तीरगी है बदन भर में चन्द्रमा।
क़िस्मत
में राख लिक्खी है तो राख ही सही॥
इस
आज को तबाह न कर बह्स में ‘नवीन’।
कल
ही पता चलेगा समझ किस की थी सही॥
नक़्शानवीस
- नक़्शा बनाने वाला, तसव्वुर – कल्पना, तीरगी - अँधेरा
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