रहमतें छोड़ के सर के लिये कलगी ले ली

रहमतें छोड़ के सर के लिये कलगी ले ली।
छोड़ कर मुहरें अरे रे रे इकन्नी ले ली॥

जिस्म चादर है जिसे उस पे चढ़ाना है हमें।
साफ़ करने के लिये दश्त में डुबकी ले ली॥

उस के पहलू में जो बेटी ने रखा अपना सर।
माँ ने सर चूम लिया, हाथों में कंघी ले ली॥

वरना क्या कहते कि कोई भी नहीं अपना यहाँ। 
यादों में खोये थे सब हमने भी हिचकी ले ली॥ 

तंज़ के तौर उसे नाम दिया शह+नाई। 
उसको अच्छा भी लगा हमने भी चुटकी ले ली॥ 

मुद्दआ ये था कि शुरुआत हुई थी कैसे। 
हम ज़िरह करते रहे उस ने गवाही ले ली॥ 

उस की जुल्फों के तले ऊँघती आँखों को मला। 
और अँगड़ाई ने फिर चाय की चुस्की ले ली॥ 

मील दो मील का थोड़ा है मुहब्बत का सफ़र। 
दूर जाना था ख़यालात की बघ्घी ले ली॥ 

जैसे ही नूर का दीदार हुआ आँखों को। 
जल गईं भुन गईं और पलकों ने झपकी ले ली॥ 

हमने ही जीते मुहब्बत के सभी पेच ‘नवीन’। 
हाँ मगर हाथों में जब आप ने चरखी ले ली॥ 

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