न जाने रीत किसने प्रीत की ऐसी बनाई है

न जाने रीत किसने प्रीत की ऐसी बनाई है

ये ऐसा रोग है जिसमें मसीहा ही दवाई है

 

भला ऐसे मरज़ में तंदुरुस्ती कौन चाहेगा

मुहब्बत में तो बस बीमार रहने में भलाई है

 

जो मामूली अगन होती तो कब की बुझ गयी होती

मगर कमबख़्त ने तो आग पानी में लगाई है

 

जो कोई एक हो तो पाँव पड़कर माँग लूँ उससे

करूँ तो क्या करूँ उसकी तो सबसे आशनाई है

 

कोई अक्सर यूँ कहता है भले तुम दिल लगा लेना

मगर दिल दे नहीं देना दुहाई है दुहाई है

 

लगे माक़ूल तो मुझको फ़क़त इतना बता देना

तुझे तनहा ही रहना था तो महफ़िल क्यों सजाई है


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