उदास
रात का
पिछला पहर
बनाती हुई
तेरी
तलाश बयाबाँ में घर
बनाती हुई
मैं उजले दिन को भी शब की तरह
सजाता हुआ
सियाह शब को मगर तू सहर बनाती हुई
फ़लक-फ़लक मैं परिन्दों
के पर कतरता हुआ
कफ़स कफ़स तू परिन्दों के पर बनाती
हुई
मैं हर ख़ुशी को ग़मों की चुनर ओढ़ाता
हुआ
तू मुस्कुराती हुई चश्मे-तर बनाती हुई
ये एक मैं हूँ महल को खँडर बनाता
हुआ
और एक तू है खँडर को नगर
बनाती हुई
मैं गाम गाम सभी से नज़र चुराता हुआ
तू गाम गाम नज़ीरे-नज़र बनाती हुई
निगाहे-नाज़ को करता हुआ मैं नज़रअन्दाज़
“निगाहे-नाज़ मुझे मोतबर बनाती हुई”
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