मुहब्बत को अयाँ करती निगाहों की ज़ुरूरत है
फ़रिश्तों की नहीं अब ख़ैर-ख़्वाहों की ज़ुरूरत है
तुम अपनी बात करते हो यहाँ कोई नहीं महफ़ूज़
ये ऐसा दौर है सबको पनाहों की ज़ुरूरत है
गुनाहों ने हमारी रूहों पर छुरियाँ चलाई हैं
हमें मरहम नहीं, ममता के फाहों की ज़ुरूरत है
बड़ी झीनी सी चादर है, उधड़ ही जाती है अक्सर
इसे हर दौर में अच्छे जुलाहों की ज़ुरूरत है
जो अपने दिल के टुकड़ों को वतन पै कर दें न्यौछावर
हक़ीक़त में तो ऐसे बादशाहों की ज़ुरूरत है
हमें पगडण्डियों से भी मुहब्बत है मगर इस दम
हमारे क़ाफ़िलों को शाहराहों की ज़ुरूरत है
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