कहीं मग़रूर हो जायें न हमतुम

 

कहीं मग़रूर हो जायें न हमतुम 

नशे में चूर हो जायें न हमतुम

 

रहे दिल्ली भले ही दूर हमसे

दिलों से दूर हो जायें न हमतुम

 

यहाँ हर ज़हन में दहशत भरी है

कहीं मजबूर हो जायें न हमतुम

 

मुक़द्दर में लिखी है क़ैद जिसके

वो कोहेनूर हो जायें न हमतुम

 

मुखौटे रोज़ बदले जा रहे हैं

कहीं काफ़ूर हो जायें न हमतुम

 

उठाओ बोझ मत माज़ी का इतना

कि चकनाचूर हो जायें न हमतुम

 

जिसे रस्मन निभाता है ज़माना

वही दस्तूर हो जायें न हमतुम

 

सख़ावत की सनक सी चढ़ गयी है

कहीं रंजूर हो जायें न हमतुम


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें