ख़ूब थी वो मक़्क़ारी, ख़ूब ये छलावा है।
वो भी क्या तमाशा था, ये भी क्या तमाशा है॥
सोचने लगे हैं अब, ज़ुल्म के क़बीले भी।
ख़ामुशी का ये दरिया, और कितना गहरा है॥
बेबसी को हम साहब, कब तलक छुपायेंगे।
दिल में जो उबलता है, आँख से टपकता है॥
पास का नहीं दिखता, सूझती नहीं राहें।
गर यही उजाला है फिर, तो ये भी धोखा है॥
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