फ़रिश्तों की नहीं अब ख़ैर-ख़्वाहों की ज़ुरुरत है

फ़रिश्तों की नहीं अब ख़ैर-ख़्वाहों की ज़ुरुरत है।
मुहब्बत को अयाँ करती निगाहों की ज़ुरुरत है॥

अगर मुस्लिम परेशां हैं तो हिन्दू भी नहीं महफ़ूज़।
ये ऐसा दौर है सबको पनाहों की ज़ुरुरत है॥

जिसे भी देखिये नाराज़ दिखता है हुक़ूमत से।
मगर फिर भी सभी को बादशाहों की ज़ुरूरत है।।

गुनाहों ने हमारी रूहों पर छुरियाँ चलाई हैं।
हमें मरहम नहीं, ममता के फाहों की ज़ुरूरत है।।

हमन हरि की चदरिया को जतन से रख नहीं पाये।
हमारे जैसों को फिर से जुलाहों की ज़ुरूरत है।।

हसद-नफ़रत1 किसी का भी सहारा बन नहीं सकतीं।
ख़ला2 की ख़लवतों3 को ख़ैर-ख़्वाहों4 की ज़ुरूरत है।।

हमें पगडंडियों से भी मुहब्बत है मगर इस दम।
हमारे क़ाफ़िले को शाहराहों की ज़ुरूरत है।।



1 घृणा-द्वेष 2 संसार 3 एकाकीपनों 4 शुभचिन्तकों





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