बदल
बदल के भी दुनिया को हम बदलते क्या।
गढ़े
हुये थे जो मुर्दे वे उठ के चलते क्या॥
हलाल
हो के भी हमसे रिवाज़ छूटे नईं।
झुलस
चुके हुये ज़िस्मों से बाल उचलते क्या॥
तरक़्क़ियों
के तमाशों ने मार डाला हमें।
अनाज़
पचता नहीं धूल को निगलते क्या॥
डगर
दिखाने गये थे नगर जला आये।
हवस
के शोले दियों की तरह से जलते क्या॥
हरिक
सवाल ज़ुरूरी हरिक जवाब अहम।
“हम
आ चुके थे क़रीब इतने बच निकलते क्या”॥
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