सच तभी
हैं कि जब कोई माने।
वरना
झूठे हैं सारे अफ़साने॥
यह भी
उलफ़त का ही करिश्मा है।
दर-ब-दर
हो गये हैं दीवाने॥
इल्म
जिन को नहीं पिलाने का।
भाड़
में जाएँ ऐसे पैमाने॥
हम ने
बख़्शा ही क्या है लोगों को।
क्यों
भला कोई हम को पहिचाने॥
यों
ही थोड़ा ही जोश में है वह।
सर किये
हैं सराब दरिया ने॥
अब तो
बेगाने भी न काम आयें।
इस क़दर
छल किये हैं दुनिया ने॥
मुठ्ठियाँ
खुलती जा रही हैं रोज़।
लाज़िमी
हो गये हैं तहखाने॥
सराब
– मृगतृष्णा;
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