परबत कहाँ? राई बराबर भी नहीं।
लोगों में अब लज्जा नहीं, डर भी नहीं॥
फ़ीतों से नापे जा रहा हूँ क़ायनात।
औक़ात मेरी जबकि तिल भर भी नहीं॥
सोचा - टटोलूँ तो खिरद* के हाथ-पाँव।
पर अक़्ल के हिस्से में तो सर
भी नहीं॥
मैं वो नदी हूँ थम गया जिस का
बहाव।
अब क्या करूँ क़िस्मत में कंकर
भी नहीं ॥
क्यों चाँद की ख़ातिर ज़मीं को
छोड़ दूँ।
इतना दीवाना तो समुन्दर भी नहीं॥
इतना दीवाना तो समुन्दर भी नहीं॥
* बुद्धि
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