हवा का हाथ परों से जो मैं बँटाता हूँ।
ये मुझ प फ़र्ज़ है साहब मैं इक
परिन्दा हूँ॥
मेरी उदास नज़र को न कोसिये साहब।
मेरा वुजूद है मौजूद हर जगह लेकिन।
मैं ख़ुश्बुओं में ठहरना पसन्द करता हूँ॥
न ढूँढ मुझको घरोंदों में, कन्दराओं में।
मैं तो हृदय से हृदय की उड़ान भरता हूँ॥
करोड़ों साल भले उम्र हो चुकी
है मगर।
मेरी नज़र में तो मैं अब भी एक
बच्चा हूँ॥
अजीब शौक़ हैं मेरे अजीब अफ़साने।
समुन्दरों को जला कर बुझा भी
देता हूँ॥
इक अपना जिस्म छुपाने की बदहवासी
में।
ज़माने भर की तमन्नाएँ ओढ लेता
हूँ॥
हो जिसके पास जवाब उस से बात
क्या करना।
मैं ख़ुद जवाब से उलटे सवाल करता
हूँ॥
जिसे पढा था किसी वालमीकि ने
इक रोज़।
दरूने-वस्ल का हाँ मैं वही बिछड़ना
हूँ॥
'नवीन' सम्त सफ़र हो तो मैं भी हूँ तैयार।
उसी पुराने सफ़र से तो कल ही लौटा
हूँ॥
बेहतरीन गज़ल ... हमेशा की तरह ...
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