और तआरुफ़
हमारा हो भी क्या।
एक शनावर
जो डूब तक न सका॥
कुछ
भँवर यूँ उचट पड़े थे ज्यूँ।
ख़ुद-कुशी
पर हो कोई आमादा॥
एक बगूले
की बात थोड़ी है।
हर बगूले
ने गर्द को रौंदा॥
बुलबुले
सतह-ए-आब को छू कर।
हम को
दुनिया का दे गए नक़्शा॥
वो तो
साँसों ने शामें सुलगाईं।
आदमी
को ये इल्म ही कब था॥
अब हवाओं
के दाम खुलने हैं।
ख़ुशबुओं
का तो हो चुका सौदा॥
अब वो
ख़ुद को समझते हैं सूरज।
जिन
सितारों का चाँद मामा था॥
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