मरमरी बाँहों पे इस ख़ातिर फ़िदा रहता हूँ मैं

मरमरी बाँहों पे इस ख़ातिर फ़िदा रहता हूँ मैं ।
इन के घेरे में गुलाबों सा खिला रहता हूँ मैं ।।

कुछ करूँ ऐसा कि तुझको खोलने पड़ जाएँ लब । 
बस इसी हसरत से तुझको छेड़ता रहता हूँ मैं ।।  

उन पलों में जब सिमट कर चित्र बन जाती है तू ।
फ्रेम बन कर तेरी हर जानिब जड़ा रहता हूँ मैं ।।

देख ले सब कुछ भुला कर आज़ भी हूँ तेरे साथ ।
तेरी यादों की सलीबों पर टँगा रहता हूँ मैं ।।

तेरी हर हसरत बजा है मेरी हर ख़्वाहिश फ़िजूल।
ये हवस है या मुहब्बत सोचता रहता हूँ मैं।।

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