तुझ को तेरे ही ख़तावार सम्हाले हुये हैं ।
दिल तेरी बज़्म को दिलदार सम्हाले हुये हैं ॥
इश्क़ एक ऐसी अदालत है जिसे जनमों से ।
जब भी गुलशन से गुजरता हूँ ख़याल आता है ।
बे-वफ़ाओं को वफ़ादार सम्हाले हुये हैं ॥
तोड़ ही देती अदावत तो न जाने कब का ।
प्यार के तारों को फ़नकार सम्हाले हुये हैं ॥
हम से उठता ही नहीं बोझ पराये ग़म का ।
हम तो बस अपने ही विस्तार सम्हाले हुये हैं ॥
एक दिन ख़ुद को सजाना है इन्हीं ज़ख़्मों से ।
इसलिये सारे अलंकार सम्हाले हुये हैं ॥
आह,
अरमान, तलाश और तसल्ली का भरम ।
अपना सन्सार यही चार सम्हाले हुये हैं ॥
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