मैं वज्ह पूछ ही न सका बेवफ़ाई की


मैं वज्ह पूछ ही न सका बेवफ़ाई की।
थी रस्म आज उस के यहाँ मुँह-दिखाई की।।

क़ातिल बता रहा है नज़र है क़सूरवार।
किस वासते है उस को ज़ुरूरत सफाई की।।

पहले तो दिल ने आँखों को सपने दिखाये थे।
फिर हसरतों ने दिल की मुसीबत सवाई की।।

हर ज़ख़्म भर चुका है मुहब्बत की चोट का।
मिटती नहीं है पीर मगर जग-हँसाई की।।

बहती हवाओ तुम से गुजारिश है बस यही। 
एक बार फिर सुना दो बँसुरिया कन्हाई की।।

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