कभी ख़ुशियों का कभी ग़म का सिरा काटूँ हूँ


कभी ख़ुशियों का कभी ग़म का सिरा काटूँ हूँ ।
उसको हमराज़ बनाने की सज़ा काटूँ हूँ।।

ख़ुदकुशी करने का मुझ को भी कोई शौक़ नहीं।
उस की ख़ुशियों के लिये अपना गला काटूँ हूँ ॥

उस ने पल भर में फ़राग़त का रिबन काट दिया ।
मैं तो बस कहता रहा कहता रहा - काटूँ हूँ ॥

सिर्फ़ होता जो गुनहगार तो बच भी जाता।
मैं वफ़ादार भी हूँ - सख़्त सज़ा काटूँ हूँ ॥

क्या पता कौन से परबत पे दरस हो उस का ।
बस इसी धुन में शबोरोज़ हवा काटूँ हूँ ॥

एक भी ज़ख्म छुपाया न गया तुम से ‘नवीन’ ।
हार कर अपने कलेज़े की रिदा काटूँ हूँ ॥

फ़राग़त - बिछुड़ना, शबोरोज़ - रात दिन, रिदा - चादर 

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