समझ में आते हैं कुछ इन्क़लाब आहिस्ता-आहिस्ता।
करें भी क्या कि खुलते हैं सराब आहिस्ता-आहिस्ता॥
वही बज़्में, वही रस्में, वही ताक़त, वही गुर्बत।
उभरते जा रहे हैं फिर नवाब आहिस्ता-आहिस्ता॥
हमारी कोशिशों को ये जहाँ समझा न समझेगा।
हमें होना था यारो क़ामयाब आहिस्ता-आहिस्ता॥
समय थमता नहीं है और बदन भी थक रहा है अब।
बिखरते जा रहे हैं सारे ख़्वाब आहिस्ता-आहिस्ता॥
किसी बेशर्म से मिन्नत नहीं सख़्ती से पेश आओ।
ज़ुबाँ टपकायेगी सारे जवाब आहिस्ता-आहिस्ता॥
सराब – मृगतृष्णा, बज़्म - महफ़िल, गुर्बत
- ग़रीबी
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