सतत सनेह-सुधा-सार यदि बसे मन में।


सतत सनेह-सुधा-सार यदि बसे मन में।
मिले अनन्य रसानन्द स्वाद जूठन में॥

समुद्र-भूमि, तटों को तटस्थ रखते हैं।
उदारवाद भरा है अपार, कन-कन में॥

विकट, विदग्ध, विदारक विलाप है दृष्टव्य।
समष्टि! रूप स्वयम का निहार दरपन में॥

विचित्र व्यक्ति हुये हैं इसी धरातल पर।
जिन्हें दिखे ‘क्षिति-कल्याण-तत्व’ गो-धन में॥

ऋतुस्स्वभाव अनिर्वाच्य हो गया प्रियवर।
शरीर स्वेद बहाये निघोर अगहन में॥




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