लुट
गये ख़ज़ाने और गुन्हगार कोई नईं।
दोष
किस को दीजिये जवाबदार कोई नईं॥
एक
मरतबा नहीं हज़ार बार हो गया।
सभ्यता
का श्वेत-वस्त्र दाग़दार हो गया।
ज्ञान
का वितान हाय तार-तार हो गया।
उस
प देखिये सितम कि शर्मसार कोई नईं॥
दोष
किस को दीजिये जवाबदार कोई नईं॥
क्या
अज़ीब खेल है ग़रीब के नसीब का।
काम
आ रहा न कोई दूर या क़रीब का।
कुष्ठ
रोगियों समान हाल है ग़रीब का।
सब
के सब हक़ीम हैं तीमारदार कोई नईं॥
दोष
किस को दीजिये जवाबदार कोई नईं॥
सभ्यता
के पक्ष में जिरह खड़ी करेगा कौन।
मुन्सिफ़ों
के सामने जिदाबदी करेगा कौन।
वक़्त
की अदालतों में पैरवी करेगा कौन।
पेशकार
हैं तमाम पैरोकार कोई नईं॥
दोष
किस को दीजिये जवाबदार कोई नईं॥
नरगिसों
को रंज़ है कि दीदावर खिला नहीं।
जो
सभी का बन सके वो आदमी बना नहीं।
मुद्दतों
से एक अश्क़ आँखों से गिरा नहीं।
ग़मजदा
तो हैं तमाम ग़मगुसार कोई नईं॥
दोष
किस को दीजिये जवाबदार कोई नईं॥
धूप
गा रही है फाग दिल उगल रहे हैं आग।
मृग-मरीचिका
के मन्त्र रट रहे हैं लोगबाग।
परबतों
की मृत्यु पर विलाप कर रहे तड़ाग।
दूर-दूर
तक जनाब सायादार कोई नईं॥
दोष
किस को दीजिये जवाबदार कोई नईं॥
व्यर्थ
के 'नवीन' तथ्य छान कर करेंगे क्या।
हो
किसी का भी क़ुसूर जान कर करेंगे क्या।
गन्दगी
में अपने ज़ह्न सान कर करेंगे क्या।
सब
यहाँ ज़हीन लोग हैं, गँवार
कोई नईं॥
दोष
किस को दीजिये जवाबदार कोई नईं॥
लुट
गये ख़ज़ाने और गुन्हगार कोई नईं।
दोष
किस को दीजिये जवाबदार कोई नईं॥
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