सोच
बदलूँ तो बदल जाता है सारा मंज़र।
हो
न हो द्रोण को अनुराग बहुत था मुझ से।
बख़्शनी
थी उन्हें दुनिया को नयी तर्ज़े-हुनर।
शायद
इस वास्ते माँगा हो अँगूठा मुझ से॥
भर
दुपहरी में कहा करता है साया मुझ से।
धूप
से तंग हूँ कुछ देर लिपट जा मुझ से॥
आज
की रात मुझे पेश करोगे किस को।
शाम
ढलते ही ख़मोशी ने ये पूछा मुझ से॥
तेरे
काम आ के इसे चैन मिलेगा शायद।
आ
मेरी जान! मेरी जान को ले जा मुझ से॥
पहले
मामूल की मानिन्द झगड़ते थे हम।
अबतो
कुछ भी नहीं कहती मिरी बहना मुझ से॥
किस
से मिलते हो कहाँ जाते हो क्या करते हो।
काश
ये पूछते रहते मिरे पापा मुझ से॥
मैं
न हाकिम, न
हुकूमत, न
हवाला, न
हुजूम।
क्यों
सवालात किया करती है दुनिया मुझ से॥
वहशतों
ने जहाँ वहमों की वकालत की थी।
पूछते
रहते हैं लम्हे वो ठिकाना मुझ से॥
देना
होगा तुझे एक-एक ज़माने का हिसाब।
वहशते-इश्क़
तू आइन्द: उलझना मुझ से॥
चुलबुले
शेर हसीनों की तरह होते हैं।
और
हसीनाओं को रखना नहीं रिश्ता मुझ से॥
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