वो बात क्या कि जिस में हक़ीक़त बयाँ न हो |
वो शे'र क्या कि जिस पे समय का निशां न हो ||
कर देगा सूर्य भस्म हमें इक सेकंड में |
फैला हमारे सर पर अगर आसमाँ न हो ||
'विनिवेश' वक़्त की है ज़रूरत, कुबूल
है |
पर यह गुलामियत का नया तर्जुमाँ न हो ||
मंदी में और पुख्ता हुई है
हमारी सोच |
उपलब्धि है ये, इस पे हमें क्यूँ
गुमाँ न हो ||
आवाज़ की जगह तो स्विचों ने संभाल ली |
कल आने वाली नस्ल कहीं बेज़ुबाँ न हो ||
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