अपना घर सारी दुनिया से हट कर है


अपना घर सारी दुनिया से हट कर है|
हर वो दिल, जो तंग नहीं, अपना घर है||

माँ-बेटे इक सँग नज़्ज़ारे देख रहे|
हर घर की बैठक में इक 'जलसाघर' है||

जिसने हमको बारीकी से पहचाना|
अक़बर उस का नाम नहीं, वो बाबर है||

बिन रोये माँ भी कब दूध पिलाती है|
वो जज़्बा दिखला, जो तेरे अन्दर है||

उस से पूछो महफ़िल की रंगत को तुम|
महफ़िल में, जो बंदा - आया पी कर है||

'स्वाती' - 'सीप' नहीं मिलते सबको, वर्ना|
पानी का तो क़तरा-क़तरा गौहर है||

सदियों से जो त्रस्त रहा, दमनीय रहा|
दुनिया में अब वो ही सब से ऊपर है||

मेरी बातें सुन कर उसने ये पूछा|
क्या तू भी पगला-दीवाना-शायर है||

पहले घर, घर होते थे; दफ्तर, दफ्तर|
अब दफ्तर-दफ्तर घर, घर-घर दफ्तर है||

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