रोज़ ही करती हैं ऐलाने-सहर

रोज़ ही करती हैं ऐलाने-सहर।
ओस की बूँदें मुलायम घास पर॥

रात भर टूटे थे इतने कण्ठ-हार।
सुब्ह तक पत्तों से झरते हैं गुहर॥

बस ज़रा अलसाई थीं कोमल कली।
बाग़ में घुस आये बौराये-भ्रमर॥

भोर की शीतल-पवन अलसा चुकी।
धूप से चमकेगा अब सारा नगर॥

इस का इस्तेमाल कर लीजे हुजूर।
धूप को तो होना ही है दर-ब-दर॥

वाह री सीली दुपहरी की हवा।
जैसे मिलने आ रहे हों हिम-शिखर॥

इक सितारा आसमाँ से गिर पड़ा।
चाँद को ये भी नहीं आया नज़र॥

बाग़ तो ढेरों हैं मेरे शह्र में।
बस वहाँ पञ्छी नहीं आते नज़र॥

सोचता हूँ देख कर ऊँचा गगन।
एक दिन जाना है वाँ सब छोड़ कर॥

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