महफ़िलों को गुज़ार पाये हम।
तब कहीं ख़लवतों पे छाये हम॥
हैं उदासी के कोख-जाये हम।
ज़िन्दगी को न रास आये हम॥
खाद-पानी बना दिया ख़ुद को।
सिलसिलेवार लहलहाये हम॥
नस्ल तारों की जिद लगा बैठी।
इस्तआरे उतार लाये हम॥
रूह के होंठ सिल के ही माने।
हरकतों से न बाज़ आये हम॥
फ़र्ज़ हम पर है रौशनी का सफ़र।
नूर की छूट के हैं जाये हम॥
‘प्यास’ को ‘प्यार’ करना था केवल।
एक अक्षर बदल न पाये हम॥
बस हमारे ही साथ रहती है।
क्यों उदासी को इतना भाये हम॥
अब तो सब को ही मिलना है हमसे।
छायीं तनहाइयाँ, कि छाये हम॥
शहर में आ के तुम चले भी गये।
थे पराये, रहे पराये हम॥
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