सितमगर की ख़मोशी को भले जुल्मो-सितम कहना।
पर उस की मुस्कुराहट को तो लाज़िम है करम कहना॥
मुहब्बत के फ़रिश्ते अब तो इस दिल पर इनायत कर।
लबों को आ गया है ख़ुश्क-आँखों को भी नम कहना॥
हमें तनहाई के आलम में अक्सर याद आता है।
किसी का ‘अल्ला-हाफ़िज़’ कहते-कहते ‘बेस्स्शरम’ कहना॥
हमें गूँगा न समझें हम तो बस इस वासते चुप हैं।
सभी के हक़ में है असली फ़साना कम से कम कहना॥
सनातन काल से जिस बात का डर था – हुआ वो ही।
बिल-आख़िर बन गया फ़ैशन दरारों को धरम कहना॥
अक़ीदत के सिवा शाइस्तगी भी चाहिये साहब।
कोई फ़ोर्मेलिटी थोड़े है ‘वन्दे-मातरम’ कहना॥
अगरचे मान्यवर कहने से कुछ इज़्ज़त नहीं घटती।
मगर हम चाहते हैं आप हम को मुहतरम कहना॥
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