बिना सिर-पैर की बातें बयाँ करते नहीं देखा ।
ज़हीनों को ज़मीं का आसमाँ करते नहीं देखा ॥
न जाने रोज़ कितनी बार परबत लाँघते हैं, पर ।
परिन्दों को कभी ख़ुद पर गुमाँ करते नहीं देखा ॥
कोई आलिम भले ही कतरनें कर डाले दरिया की ।
किसी नादाँ को तो यों धज्जियाँ करते नहीं देखा ॥
शराफ़त-बाज़ ही तकते हैं छुप-छुप कर हसीनों को ।
किसी दीवाने को ये चोरियाँ करते नहीं देखा ॥
कोई इनसान ही डोनेट कर सकता है अंगों को ।
फ़रिश्तों को तो ऐसी नेकियाँ करते नहीं देखा ॥
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