चोट खा कर भी शराफ़त कर रहे हैं आदमी


सच तो ये ही है इनायत कर रहे हैं आदमी।
चोट खा कर भी शराफ़त कर रहे हैं आदमी॥

ईंट-पत्थर का कलेवर ईंट-पत्थर हो गया।
देखते ही देखते साम्राज्य खंडर हो गया।
सब की लापरवाहियों से घर जो जर्जर हो गया।
सिर्फ़ उस घर की मरम्मत कर रहे हैं आदमी॥
चोट खा कर भी शराफ़त कर रहे हैं आदमी॥

हम बहुत कमज़ोर हैं हम पर तरस खाओ हुज़ूर।
नफ़रतों की आग पर कुछ प्यार बरसाओ हुज़ूर।
जो हुआ सो हो गया अब तो सुधर जाओ हुज़ूर।
रोज़ शैतानों से मिन्नत कर रहे हैं आदमी॥
चोट खा कर भी शराफ़त कर रहे हैं आदमी॥

कम बुरे बन्दे को चुन कर आबकारी सोंप कर।
जिम्मेदारों को वतन की जिम्मेदारी सोंप कर।
सेंधमार अहले-वतन को सेंधमारी सोंप कर।
बस इशारा भर सियासत कर रहे हैं आदमी॥
चोट खा कर भी शराफ़त कर रहे हैं आदमी॥

रहबरों को राह दिखलाएँ इसी उम्मीद में।
मरहमों पर काम करवाएँ इसी उम्मीद में।
काश! कल कुछ काम आ जाएँ इसी उम्मीद में।
अपने ज़ख़्मों की हिफ़ाज़त कर रहे हैं आदमी॥
चोट खा कर भी शराफ़त कर रहे हैं आदमी॥

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