बढा
रही हैं रंगतें हुज़ूर के दयार की।
उमंग
में तरंग घोलती धुनें धमार की॥
निकुंज
के सनेहियों को और चाहिये भी क्या।
वही
किशन की बाँसुरी वही धुनें धमार की॥
इसी
लिये तो आप से सनेह छूटता नहीं।
इक
आप ही तो सुनते हैं शिकायतें शिकार की॥
लता-पताएँ
छोड़िये महक तलक उदास है।
बिछोह
में झटक गयी हैं बेटियाँ बहार की॥
कभी
कहो हो सब्र कर कभी कहो हो भूल जा।
बदल
रहे हैं आप क्यों दवाइयाँ बुख़ार की॥
न
कल्प-वृक्ष चाहिये न कामधेनु चाहिये।
हुज़ूर
हम तो चींटियाँ हैं आप के दयार की॥
ज़ुरूर
उन को भी हमारी याद आई है ‘नवीन’।
तभी
तो बात हो रही है नन्द के कुमार की॥
गिरह:-
तजल्लियों*
ने आदमी को सोचना सिखा दिया।
”
‘ये’ दासतान है नज़र पै रौशनी के वार की”॥
*तेज-पुंज
/ दैवीय-प्रकाश / ज्ञान-रश्मियाँ / प्रकाश-किरणें
तसव्वुर
(कल्पना) बतलाता है कि मानव की दृष्टि पर सबसे पहला रश्मि-वार सूर्य-चन्द्रमा के
प्रकाश की किरणों का हुआ होगा।
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