काम आना हो तभी काम नहीं आते हैं


काम आना हो तभी काम नहीं आते हैं।
धूप के पाँव दिसम्बर में उखड़ जाते हैं॥

धूल-मिट्टी की तरह हम भी कोई ख़ास नहीं।
बस, हवा-पानी की सुहबत में सँवर जाते हैं॥

वो जो कुछ भी नहीं उस को तो लुटाते हैं सब।
और जो सब-कुछ है, उसे बाँट नहीं पाते हैं॥

सारा दिन सुस्त पड़ी रहती है ग़म की हिरनी।
शाम ढलते ही मगर पंख निकल आते हैं॥

शह्र थोड़े ही बदलते हैं किसी का चेहरा।
आदमी ख़ुद ही यहाँ आ के बदल जाते हैं॥

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